✍️ लेखक – संपादकीय टीम, हेलोराजस्थान न्यूज़ डेस्क
🔥 “आग बस में नहीं लगी, हमारे सिस्टम की आत्मा में लगी है।”
राजस्थान के जैसलमेर में एक निजी बस में लगी आग ने न केवल 20 निर्दोष लोगों की जान ली, बल्कि इसने हमारे प्रशासनिक ढांचे, जवाबदेही और मानवीय संवेदनाओं की सच्चाई भी उजागर कर दी। यह महज़ एक हादसा नहीं – यह उस सुस्त व्यवस्था का परिणाम है, जो हर त्रासदी के बाद कुछ क्षणों के लिए जागती है और फिर सो जाती है।
⚙️ कागज़ पर सुरक्षित, ज़मीन पर असुरक्षित
बस एकदम नई थी – 1 अक्टूबर को रजिस्ट्रेशन हुआ और 15 अक्टूबर को यह चलती हुई चिता बन गई।
क्या किसी ने उसकी वायरिंग की जांच की?
क्या उसमें फायर एक्सटिंग्विशर मौजूद था?
क्या ड्राइवर-कंडक्टर को आपातकालीन प्रशिक्षण मिला था?
इन सवालों के जवाब अगर “नहीं” हैं – तो यह हादसा नहीं, एक “मानव निर्मित हत्या” है।
⏱️ फायर ब्रिगेड की देरी – जानलेवा सुस्ती
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, हादसे के करीब 50 मिनट बाद फायर ब्रिगेड पहुंची।
तब तक सबकुछ राख में बदल चुका था।
सेना के जवानों ने गेट तोड़कर यात्रियों को बचाया –
और यह विडंबना है कि “सेना” को अब सीमाओं के साथ-साथ “हमारे नागरिक सिस्टम की कमज़ोरियों” को भी ढोना पड़ रहा है।
अगर यह हादसा शहर की जगह किसी वीआईपी रूट पर होता,
तो क्या दमकल इतनी देर लगाती?
यह प्रश्न हर आम नागरिक के दिल में गूंज रहा है।
🧾 सुरक्षा की रिपोर्ट फाइलों में गुम
भारत में हर सार्वजनिक वाहन को फिटनेस सर्टिफिकेट, सेफ्टी रिपोर्ट और आपातकालीन निरीक्षण से गुजरना होता है।
लेकिन क्या ये जांचें वास्तव में होती हैं,
या “फाइलों पर टिक मार्क” बनकर रह जाती हैं?
हमारे आरटीओ, ट्रांसपोर्ट और फायर विभाग
कागज़ पर जितने चुस्त हैं, ज़मीन पर उतने ही लापरवाह।
कभी नाबालिग ड्राइवर बस चला रहा होता है,
कभी बिना सेफ्टी उपकरण के वाहन चल रहे होते हैं —
और हादसे के बाद बस एक बयान आता है:
“शॉर्ट सर्किट के कारण आग लगी…”
💬 मुआवज़े नहीं, जवाबदेही चाहिए हर त्रासदी के बाद सरकार मुआवज़ा घोषित करती है – ₹2 लाख मृतकों के लिए, ₹50,000 घायलों के लिए। लेकिन सवाल यह है कि कब तक जान की कीमत रुपये में तय की जाएगी? मुआवज़ा नहीं, जवाबदेही चाहिए। जो अधिकारी, ऑपरेटर या विभाग इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार हैं, उनके खिलाफ कानूनी और दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए।
क्योंकि जब तक जिम्मेदारों को सज़ा नहीं मिलेगी, हर “जैसलमेर” किसी और जगह फिर से दोहराया जाएगा।
🕯️ आग बुझी नहीं है – यह चेतावनी है जैसलमेर की उस जली हुई बस की राख में सिर्फ राख नहीं, हमारे समाज की संवेदना, व्यवस्था की जवाबदेही और शासन की प्राथमिकताएं भी दबी पड़ी हैं। यह हादसा हमें झकझोरता है कि “जीवन की सुरक्षा” केवल नीतियों का विषय नहीं – बल्कि एक नैतिक दायित्व है।
अब वक्त है कि “सिस्टम” शब्द का अर्थ फाइलों से निकालकर ज़मीन पर लाया जाए। ताकि अगली बार कोई बस, कोई परिवार, कोई बच्चा सिर्फ इसलिए न जले – क्योंकि किसी ने अपने कर्तव्य को हल्के में लिया।
✍️ निष्कर्ष जैसलमेर की यह त्रासदी हमें याद दिलाती है – “सुरक्षा कागज़ों से नहीं, नीयत से आती है।” जब तक सिस्टम अपनी नीयत नहीं बदलता, हर यात्रा अनिश्चित है, हर बस एक संभावित खतरा है, और हर हादसा एक “जिंदा सबूत” कि हमारी लापरवाही भी एक अपराध है।
