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कविता : मन के रावण

On: October 1, 2025 5:08 PM
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मेरे मन में बैठे है कई रावण
किसी को चाह है गरीबों का हक़ मारने की,
किसी को ईर्ष्या है पड़ोसी की प्रगति से
किसी को औरों की जमीन पे करना है कब्ज़ा
किसी को ठग के ठाकुर बनना है

किसी को बेच के लोगों के अंग
खुद के अंगरक्षक रखना है
किसी को बेच के नवजातों को
खुद का जमीर बेचना है
किसी को कर मिलावट हर चीज में
मौतों का सौदागर बनना है

किसी को कमाई के त्वरित तरीकों से लाखों कमाने है
किसी को बहन बेटी को बेआबरू कर,
शाम को बहिन बेटियों के सम्मान
में नैतिकता पूर्ण भाषण देना है
किसी को धांधली के धंधे से धनवान होना है

मैं कैसे इतने रावणों को दशहरे पे एक साथ
जला के मुक्त करूं मन को
क्या संभव है कि कोई पर्व हो ऐसा
जो मन के रावणों को भी जलाये
साथ में इनके नापाक तन को

और हम त्याग सके इन मन के मेहमानों को,
और यह भी कि बाहरी रूप से जला के रावण,
वायु प्रदूषण के जिन्न को बाहर न निकाला जाए
हरित रावण का वध करके
सीता रूपी सती माँ भारती को बचाया जाए।
धुंए से उठे आसमान तक गुबार के बाद
क्यों न ‘उमा’ एक पौधा लगाया जाए ।

– उमा व्यास, SI राज.पुलिस

(वॉलंटियर,श्री कल्पतरु संस्थान, राजस्थान)

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